बुधवार, 18 नवंबर 2009

एन. एन. डी. भट्ट की याद में

सरल एवं मृदुभाषी श्री एन. एन. डी. भट्ट जी का जन्म १७ फरवरी १९४२ को  उत्तराखंड के सुरम्य स्थल मुक्तेश्वर में हुआ था. अध्ययन काल से ही वह साहित्य, कला व रंगमंच के क्षेत्र में चर्चित रहे.
उन्होंने हल्द्वानी में सन् १९७८ में वीरशीबा सेकेंडरी स्कूल की स्थापना  की. शिक्षा को समाज के परिवर्तन का आधार मानने वाले इस जुझारू शिक्षाविद् ने किच्छा, अल्मोड़ा, पिथोरागढ़ व रानीखेत में विद्यालयों की स्थापना की. गूंगे,बहरे  बच्चों की पीड़ा को अनुभव करके उन्होंने कुमाऊँ मूक बधिर विद्यालय की स्थापना की. उनके मस्तिष्क में अनेक दूरगामी योजनाएं थीं, जो शिक्षा के मूलभूत उद्देश्य और बच्चों की सर्वांगीण उन्नति को लेकर थी.
कला व रंगमंच में उनकी हार्दिक रूचि थी. पहली कुमाऊँनी फिल्म ''मेघा आ'' के निर्माण में उन्होंने सहयोग दिया एवं फिल्म में लुहार के रूप में उनका हृदयस्पर्शी अभिनय देखने को मिला.
वर्ष १९८८ में इस्राइल समस्या के निदान व विश्व्शान्त्ति के लिए स्विट्जरलैंड में हुई विश्व कोंफ्रेंस में उन्होंने अपने देश भारत का प्रतिनिधित्व किया. 'अमेरिकी पीस प्रेयर सोसाइटी' हेतु भारतीय प्रतिनिधी के रूप में उनका चयन हुआ था. संक्षेप में यह तो था उनका जीवन परिचय, पर ---
स्वभाव से सरल, वाणी से समर्थ, नयनों से भोले - भाले, बच्चों में बच्चे, जवानों में जवान, बूढों में बूढ़े, आदर करना और करवाना, प्रेम देना और प्रेम लेना उनका प्रमुख गुण था.
वे संघर्षों में, समस्याओं में, आगे बढे थे , मेधावी ना होते तो विद्यार्थियों में, अध्यापकों में, विद्वानों में और समाज में गौरव कैसे पाते ?
भट्ट जी एक चमत्कारी व्यक्ति थे. उनके पास विशेषताओं का एक पूरा भण्डार था. क्या नहीं था इस भण्डार में - जिंदादिली, सौहार्द, स्नेह, दुःख - दर्द में साझेदारी और असली आत्मीयता.
हवाओं में कविता की खुशबू सूंघ लेने वाले सहृदय भावुक कवि, जिनके शब्द - शब्द में एक भोले मन की उमंग और सच्चाई के दर्शन होते थे.
उनके संपर्क में आने वाला व्यक्ति कभी असंतुष्ट नहीं लौटा. आज के युग में जब रक्त - सम्बन्ध भी अपना वास्तविक अर्थ खोते जा रहे हों, तो आपके द्वारा किये गए संबंधों का निर्वाह मन में एक आदर - भाव जगाता है , साथ ही एक आश्चर्य भाव भी होता है. अच्छाइयों के प्रति एक आस्था जन्म लेती है, और एक नया विश्वास करवटें लेता है.
नारी, चाहे वह किसी भी आयु वर्ग की हो, उसके प्रति उनके मन में हमेशा सम्मान का भाव रहा. उनकी कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं था, अपनी पुस्तक आक्रोश में उन्होंने लिखा है --
''मैं अपने देश की सभ्यता को नारी जनित सभ्यता कहता हूँ. यदि इस देश की नारी इतना त्याग ना करती तो हम और कितना गिर गए होते''.
संसार में विद्वता दुर्लभ नहीं, सज्जनता दुर्लभ है. शिक्षा, साहित्य व कला के क्षेत्र में उन्होंने चाहे जिन भी ऊँचाइयों को छुआ हो, पर उनका सरल, मधुर व्यक्तित्व और आत्मीयता पूर्ण व्यवहार सबको भाव - विभोर कर देता था.वे कुछ गिने - चुने लोगों में थे जो दूसरों की सहायता करते रहने में, भलाई करते चले जाने में विश्वास करते रहे, चाहे इसके लिए उन्हें  ज़ख्म ही क्यूँ ना मिलें .
उनका जीवन कर्ममय रहा है. उन्होंने हिन्दी - साहित्य की सेवा स्वाभिमान, गौरव तथा वैदुष्य की तिरंगी फहराते हुए की है.
 
"सारा जीवन तुम्हारी माटी की थाली से 
तीर - तीर कर समय की नालियों में बहता चला आया है."-----
                                                                                       ''त्रिवेणी'' से
निरंतर रचनात्मकता की प्रवृत्ति ------
 
"अभिलाषाएं तो बहुत हैं
जी लूँ बहल जाऊं
पर - मन की व्यथा हाय
पी लूँ या लिख जाऊं."
 
उनकी कविताओं में आध्यात्मिकता व दार्शनिकता के भी दर्शन होते हैं---
 .
"जीवन एक सपना है
सपने में फिर अपना है"
 
 
सरल व सीधे शब्दों में उनके दार्शनिक चिंतन की छाप स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है--
.
"उदास और निराश जिन्दगी
किसे मालूम कि आत्मा अब कुछ
बुझती जाती है
चाँद हरी शाख भी जिन्दगी की सूखती
जाती है"
 
और ---
"मैं गा चुका
और वीणा रख चुका"
 .
वे सर्वधर्म में सामान विश्वास रखते थे. हमेशा गलत बातों का खंडन करने को प्रेरित करते थे. उनका आचार - व्यवहार धार्मिक कम मानवीय  और उच्च आदर्श युक्त था जिसका पालन  स्वयं करना और करवाना उनका मुख्य  उद्देश्य था.
अपनी कविता में एक जगह उन्होंने लिखा है ---
 
"हम आदमी क्यूँ हुए
हिन्दू - मुसलमान, सिख ईसाई या
फिर जैन क्यूँ ना हुए
फकत हम आदमी क्यूँ हुए"
और ---
 
"यहाँ  आदमी,आदमी में
देवत्व देखना चाहता है 
क्यूंकि स्वयं भीतर रिक्त है 
 
 और निराशा के बीच में भी जीवन के प्रति अटूट आस्था को समर्पित उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं ---
 
"किन्तु दौड़ना है -
यह मानवीय नियम है
पैदा होने का मूल्य
पल पल इसी तरह चुकाना है
आज जाना है "
 
 
                                                   

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

पिया तेरी प्रीत जीवन संवार गयी



पिया तेरी प्रीत  जीवन संवार गयी
चमचमाती धूप घने कोहरे को छाँट गयी
 
माथे अनुराग का टीका सजाए बैठी हूँ
घूंघट मैं लाज का, आँखों में छिपाए बैठी हूँ
 
हंसी तेरी, रूप मेरा कैसे निखार गयी
पिया तेरी प्रीत  जीवन संवार गयी
 
हाथों में बंधन का रूप नहीं कंगन ये
 जिसका ना  छोर कोई, ऐसा गठबंधन ये
 
 लगे मुझे संग तेरे हर दिन हर रात नई 
पिया तेरी प्रीत  जीवन संवार गयी
 
उलझन से दूर मैंने केशों को गूंथा है
 तेरे साथ खुशियों का हर क्षण अनोखा है
 
इसी बात पर ना कभी लोगों की आँख गयी
पिया तेरी प्रीत  जीवन संवार गयी
 
जितना निर्बाध है ये गंगा का पानी
उतनी स्वच्छंद मेरे प्यार की कहानी
 
बिना कहे, बिना सुने घर - घर के द्वार गयी
पिया तेरी प्रीत  जीवन संवार गयी
 
तू ही मेरे धर्म, तेरा प्यार मेरी पूजा है
बाकी जो देखा, वो आँखों का धोखा है
 
हर नज़र में सांस तेरी आरती उतार गयी
 पिया तेरी प्रीत  जीवन संवार गयी
 
 

बुधवार, 16 सितंबर 2009

मुझे तुम्हारा प्यार चाहिए .

मुझे तुम्हारा प्यार चाहिए
 
नहीं चाहिए मुझको वैभव
पर, सुख का संसार चाहिए
 
नित नूतन धाराएं लेकर
एक नदी बहती है
कितनी बाधाएं टकरातीं
पर आगे बढ़तीं हैं
 
नहीं चाहती थम जाना
पर, सागर का आधार चाहिए
 
रहूँ वृक्ष से लिपटी सिमटी
मैं वह बेल नहीं हूँ
खेल सको आजीवन जिससे
ऐसा कोई खेल नहीं हूँ
 
खुली हवा में सांस ले सकूं
पहले यह अधिकार चाहिए
 
नारी हूँ , इसीलिए तुम
सीमा रेखा मत बांधो
बहार की इस चमक - दमक से
मन का मूल्य ना आंको
 
विलासिनी मैं नहीं ,पर
सहज मुझे श्रृंगार चाहिए
 
यह मेरा सौभाग्य तुम्हारे
जीवन की साथी हूँ
मन उदास होता जब ,
तुमको पास नहीं पाती हूँ
 
आशंकित मत जानो, लेकिन
विश्वास भरा व्यवहार चाहिए
 
तुमसे बंधकर , घर -बाहर
की दुनिया बदल गयी है
चलते - चलते ज्यूँ पुरवैया 
सहसा ठिठक गयी है 
 
आभूषण का लोभ नहीं प्रिय !
बाहों का गलहार चाहिए 
 
मुझे तुम्हारा प्यार चाहिए . 

रविवार, 23 अगस्त 2009

उनसे मिलकर उदास होना था

उनसे मिलकर उदास होना था
अब ना हमसे मिला करे कोई
 
हर फूल की जुबां में कांटें हैं
कहाँ तक उनसे बचा करे कोई
 
उम्रकैदी हैं हम रिवाजों के
कैसे खुद को रिहा करे कोई
 
मैं भी जीती हूँ जिन ख्यालों में
डर है उनको ना छीन ले कोई
 
क्यूँ चलूंगी मैं किसी की राहों पर
अपनी मंजिल तो और है कोई ....
 

शनिवार, 15 अगस्त 2009

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ

अरुण सुनहरी उषा आई !
अगणित वीरों का त्याग लिए
भूतल में तरुण प्रकाश लिए
रातों के बंधन पट खोले
मंथर गति से लहराई
अरुण सुनहरी उषा आई
 
जिसकी पावन किरणों ने
सबके मन को बाँध लिया 
ममता की जंजीरों से वह 
हमको आज जकड़ने आई 
अरुण सुनहरी उषा आई 
 
यही गुलामी की जंजीरें 
भारत मान के कंठ पड़ीं जब 
विवश खड़ी वह  कोने में तब
अश्रु नैनों में भर लाई
अरुण सुनहरी उषा आई
 
पर माता के लाल करोड़ों
अविरल आंसू देख ना पाए
'भारत छोड़ो' वीरों के स्वर भरी
एकता सन्मुख आई
यहीं  क्रांतिमय उषा आई
 
गए फिरंगी भारत माता
की जय हो , जय गान किया
माला फूलों की पहनाने
नवरंगों में उषा आई
अरुण सुनहरी उषा आई
 
आजादी के वातायन में
एक विचार उठा यह मन में
हम सब मिल कर एक रहेंगे
बने एकता यह सुखदाई
अरुण सुनहरी उषा आई .....
 
 

शनिवार, 8 अगस्त 2009

तुमने बुलाया पास

तुमने बुलाया पास
स्तब्ध हृद आकाश
घुमड़ घुमड़ घिर गए
बह चला हवा का
तीव्र झोंका.
युग संचित स्वप्न से
अकस्मात जाग गया
बिखरे रज कणिक से
विचारों को
वह बहा कर ले गया.
मेरे कानों में चुपके से
धीरे से
कुछ मुस्का कर
शर्माता सा
बोला, वह
यह उदासी किसलिए ?
मुझ पर रखो विश्वास
ले चलूँगा पलक मारे
आज तुमको
मैं प्रिया के पास ...

रविवार, 12 जुलाई 2009

आज तुम्हारी ढेरों यादें आयी मेरे नाम से .....

आज तुम्हारी ढेरों यादें

 

आज तुम्हारी ढेरों यादें

आयी मेरे नाम से

बढ़ने लगा दर्द का पहरा

टुकड़ा-टुकड़ा शाम से

 

दिन रात अगरु सा जलता मन  

चुपचाप राख बनता है

निर्मोही सा कोई मेरे

जीवन को छलता है

 

जो बात किसी से कही नहीं  

वह भी तो मेरी रही नहीं  

तुमसे तो अच्छी यादें हैं  

आजीवन मेरी बनी रहीं

रविवार, 5 जुलाई 2009

हम तेरे जीवन की राह को संवार देंगे
तुम मेरे दर्द को फूलों का घर देना

नयनों में प्यार का सागर उतार कर
साँसों को चंदन सी खुशबू का हार दो
उड़ते समय के पंछी से पूछ लो
कब तक मनाओगे फागुन के फाग को

हम तेरी प्रीति को नए प्रतिमान देंगे
पहले मेरे आँचल को वासंती कर देना

सोनजुही मन पर गमकी हैं बेलाएं
शबनम सी चमकेंगी चुटकी भर आशाएं
बौराए पेड़ों पर मौसम का पहरा है
पलकों पर इन्द्रधनुष सपनों का उतरा है

हम तेरी चाँद सी दूरी को सह लेंगे
तुम अपनी आँखों को चाँदनी से भर लेना

फ़िर कभी मधुबन की माधुरी न रोएगी
सुधियों के सिरहाने रात भर न सोएगी
रूप के सुधासर में डूब गयी छुई-मुई
अनमोल से पलों को न लाज में डुबोएगी

हम तेरा मन आँगन तुमसे उपहार लेंगे
जीवन की देहरी पर स्नेहदीप रख देना

अंजुरी में सागर मन में मधुमास लिए
आयी है पुरवैया चातक सी प्यास लिए

पूजा की थाली के फूल न मुरझा जाएँ कहीं
खिलती कचनार की सुगंध न उड़ जाए कहीं

हम तेरी यादों को गीतों में बाँध लेंगे
तुम अपनी चाह को निबाह का शगुन देना

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

अपमानित जीवन से अनुबंध क्यूँ करें?

क्यूँ सहें
 
अपमानित जीवन से अनुबंध क्यूँ करें? 
आँसुओं के मोल पर सम्बन्ध क्यूँ करें?
 
तन से मन का अवसाद बड़ा होता है
आदमी से ज़्यादा जल्लाद कोई होता है
पीना पड़े रोज़ अगर लान्छ्नाओं का ज़हर 
मौत से भयानक हुई ज़िन्दगी की दोपहर
 
वर्जनाओं के असंख्य पहरे में क्यूँ रहें?
प्रेम के नाम पर प्रतिबन्ध क्यूँ सहें?
 
नारी तो नदी है चुपचाप बही जायेगी
अपनी खुशी से ही सागर में समाएगी
पर्वत ने रोका तो धारा को मोड़ दिया
मौसम ने छेड़ा जब बांधों को तोड़ दिया
 
कूलों की निर्धारित सीमा में क्यूँ बहें?
अपमानित जीवन ---------------------
 
हमको रुलाया है अपनों की बातों ने
बींध दिया मन को घात- प्रतिघातों ने
सीने पर बोझ लिए जीने की सज़ा है
किस्मत में देखेंगे और क्या लिखा है
 
संदेहों के विषधर का दंश क्यूँ सहें
अपमानित ----------------------------
 
जब तक स्नेह मिला जलती रही बाती
पत्थर के देवता को समझ नहीं पाती
अलगाव की सीमा पर पहुँचाया चाह ने 
आँसुओं ने प्यार की कीमत चुका दी
 
अर्थहीन बातों के संकल्प क्यूँ करें?
अपमानित -----------------------------
आँसुओं --------------------------------

रविवार, 28 जून 2009

कोई पूछे इसके पहले .......

कोई फागुनी गंध तुम्हारी
साँसों में भर जाए तो,
मेरी सुधियों की थाती को
अपनी बांहों में भर लेना
 
बोझिल हो जाएंगी रातें
दिन हो जाएँगे आवारा
सूनी रातों के सपनों को
अपने सिरहाने रख लेना
 
अवश नेह के पागलपन ने
कैसा गठबंधन जोड़ा है
यह बंधन दुखदाई हो तो
सुलह ज़माने से कर लेना
 
मन की भाषा छंद ना जाने
उलझन से बच कर आतीं हैं
दिल की दर्द भरी सौगातें
मौसम के गीतों में रचना
 
बहुत कठिन है सुख की आशा
कितना संयम तन मन बाँधा
अगणित आहों का सूनापन
ले कर चुप चुप जलते रहना
 
कभी मिलन है कभी निराशा
मृगतृष्णाओं की परिभाषा
कोई पूछे इसके पहले
मेरी कहानी दुहरा देना ....

शुक्रवार, 26 जून 2009

अब बरस भी जाओ बादल ....

सरस घनश्याम जाओ  

 

तरणी के ताप से व्याकुल

दिशाएं तप रहीं लू से

हवाएं गर्म चलती हैं

 

निराश्रित वृद्ध सी दोपहर

कुँवारी साध सी ढलती

बढ़ी आती है गर्मी अब

सरासर सीढियां चढ़तीं

 

ये कैसी उठ रही लपटें

असहनीय दर्द सी चुभती

उधर अम्बर सुलगता है

धरा पर आंधियाँ चलतीं

 

तृषित कंठों को सरसाने,

हृदय का भार उठवाने

चुकाओ ग्रीष्म का कर्जा

सजल जलधार से घिर आओ   

धरा के   अंक में झूमो

दिशाओं में समां जाओ

 

बहाओ भाव की सरिता

मलिन रसहीन हृदयों पर  

मिले जीवन नया सबको

नवल संगीत अधरों पर

तुम्हारा मार्ग संजीवन

प्रतीक्षा में है आतुर मन

 

गली चौराहों,राहों पर

रूक्ष पीताभ-वृक्षों पर

उगलती आग के गोले

घुटन बैठी हिंडोले पर

 

तुम्हारी दृष्टि के प्यासे खड़े हैं  

आज मुँह ताके

 

मिटाने  प्यास जन-मन की            

सरस घनश्याम जाओ

घुमड़ आकाश में स्वच्छंद

धरा की गोद भर जाओ

निलय के अंक में झूमो

दिशाओं में समा जाओ
 

सोमवार, 22 जून 2009

याद बहुत आते हैं मुझको

वो सपनीले दिन  

 

याद बहुत आते हैं मुझको  

खट्टी मीठी बातों वाले

अमियों वाले दिन

 

कैसी धूप कहाँ का जाड़ा

सर पर लू की चादर ओढे

सखी सहेली के घर जाना

बात-बात पर हँसने वाले

टीस जगा जाते हैं अक्सर

बचपन वाले दिन

 

गली मुहल्ला एक बनाते

बारी से सबके घर जाते

उनकी रसोई अपनी होती

रोज़ ही देहरी पूजा होती

अपनापे का स्वाद चखाते

बड़े मधुर संबंधों वाले

याद बहुत आते हैं मुझको

वो सपनीले दिन

 

अब कैसी नीरस दुनिया है

सुविधाओं का जाल बिछा है  

हर कोई अपने में गम है

किसको फुर्सत है जो सोचे

अपने और पराये घर से

दूर पास से आने वाले

खुशियों के संबोधन वाले

गीतों वाले दिन

 

बारिश में भीगे अनुभव से

बूँदों की रिमझिम में बसते

कविताओं की पायल पहने  

याद बहुत आते हैं मुझको  

मेहमानों से दिन

शुक्रवार, 19 जून 2009

तुमने आँखों ही आँखों में .....

तुमने आँखों ही आँखों में  

क्या संकेत  दिया अनजाने  

मेरे आँगन में खुशियों ने

पावन बन्दनवार सजाया
 

तुमने बातों ही बातों में  

क्या बातें की थीं अनजाने  

मेरे भावों ने भाषा का

परिणय स्वर के साथ रचाया 
 

हर मौसम मधुमास बन गया  

हर पक्षी कोकिल सा बोले

मुझको लगता इस धरती के

अंग अंग अनुराग भर गया
 

अल्हड़ यौवन पर मस्ती ने  

करवट बदली ली अंगड़ाई

स्वप्न सजाने लगी जवानी  

अजब खुमारी तन पर छाई
 

तुमने साँसों ही साँसों में  

निःश्वास भरे कितने अनजाने  

संपप्त समीरों के झोंकों ने

पुनर्मिलन संदेश सुनाया
 

रात चाँदनी की चादर में  

लिपटी -लिपटी सन्मुख आयी  

मर्यादा भूला तम अपनी

रूप-राशि की छवि ज्यों आयी 
 

तुमने नभ में चाँद देख कर  

कोई कल्पना की अनजाने

मेरे कानों में चुपके से उसने

आकर गीत सुनाया
 

तुमने परिवर्तन का ऐसा  

कोई मंत्र पढ़ा अनजाने

अलस चेतना सजग हो उठी  

जीवन का उद्देश्य सुझाया
 

बने प्रेरणा तुम प्राणों में  

जीवन में उत्साह छा गया  

बिछुड़ गए तुम मुझसे लेकिन  

यही विरह वरदान बन गया
 

पूजन मन्दिर में निशि-वासर  

कितने भोग चढ़े क्या जानूँ

मैनें संयम की थाली में 

अपना उर नैवेद्य चढ़ाया
 

तुमने आँखों ही आँखों में  

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मेरे आँगन में खुशियों ने

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