रविवार, 6 जून 2010

चुकाओ ग्रीष्म का कर्जा ...सजल जलधर से घिर आओ|

सरस घनश्याम आ जाओ!
 
तरणि  के ताप से व्याकुल
धरा की गोद जलती है
दिशाएँ तप रहीं लू से
हवाएं गर्म चलती हैं|
 
निराश्रित वृद्ध सी दोपहर
कुंवारी साध सी ढलती
बढ़ी आ रही गर्मी अब
सरासर सीढियां चढ़तीं|
 
ये कैसी उठ रही लपटें
असहनीय दर्द सी चुभती
उधर अम्बर सुलगता है
धरा पर आंधियां चलती|
 
तृषित कंठों को सरसाने
ह्रदय का भार उठवाने
चुकाओ ग्रीष्म का कर्जा
सजल जलधर से घिर आओ|
 
धरा के अंक में झूमो
दिशाओं में समा जाओ
बहाओ भाव की सरिता
मलिन रसहीन हृदयों पर|
 
मिले जीवन नया सबको
नवल संगीत अधरों पर
तुम्हारा मार्ग संजीवन
प्रतीक्षा में है आतुर मन|
 
गली, चौराहों, राहों पर
रुक्ष पीताभ-वृक्षों पर
उगलती आग के गोले-
घुटन बैठी हिडोले पर|
 
तुम्हारी दृष्टि के प्यासे, खड़े हैं
आज मुंह ताके|
मिटाने प्यास जन-मन की,
सरस घनश्याम आ जाओ|
 
घुमड़ आकाश में स्वच्छंद,
धरा की गोद भर जाओ
निलय के अंक में झूमो
दिशाओं में समा जाओ|
 
 

शुक्रवार, 14 मई 2010

हर उम्र में भीगता सावन नहीं आता|.....

गुमशुदा मन का पता कोई नहीं पाता
इस डगर से आजकल कोई नहीं आता|
 
मुस्कुरा देती हूँ मैं कौन समझाए उन्हें
हर उम्र में भीगता सावन नहीं आता|
 
एक अनबोली व्यथा है आपकी बातों में, पर
लाज का घूंघट उठाया भी नहीं जाता|
 
नदी तो बहती रही और तट सूखे रहे 
काश ! कोई थाह का अनुमान कर पाता|
 
लाख पूजो देवता को फूल, अक्षत, आरती से
क्या करूँ यह   मन समर्पित हो नहीं पाता|
 
ज़िंदगी के दिन कठिन कैसे बिताते हम अगर
बहते आंसू पोछ कर हंसना नहीं आता| 

मंगलवार, 11 मई 2010

कोई उद्दाम अभिलाषा सभी प्रतिबन्ध तोड़ेगी|

अधूरी कामनाएँ

 

अधूरी कामनाएँ फिर मेरे सपनों में आ पहुँची

कोई उद्दाम अभिलाषा  सभी प्रतिबन्ध  तोड़ेगी|  

 

नियम के साथ क्या मन को

हमेशा बाँधना होगा

खुले आकाश के नीचे

धरा को नापना होगा  

 

दिशाओं के निमंत्रण पर क्षितिज की माँग आ पहुँची   

उडानें पंछियों  की फिर नए सम्बन्ध जोड़ेंगी|  

 

बड़ा अभिमान लहरों  को 

किनारे साध कर चलती 

उसे मालूम क्या गति  पर 

नहीं बैसाखियाँ लगतीं   

 

अनिश्चय बांटती राहें हमारे पास आ पहुँचीं 

संभालो गाँव - घर अपने, नदी तटबंध तोड़ेगी| 

 

मिटाया विवशताओं ने 

अधूरी रात का सपना 

हमें कब तक ना आएगा 

ह्रदय को बाँध कर रखना  

 

ये तन - मन की निराशाएं मेरे सिरहाने आ पहुँचीं 

कोई व्याकुल प्रतीक्षा अनछुए सन्दर्भ ढूंढेगी| 

 

सदा पहरा नहीं चलता 

बड़ी संवेदनाओं पर 

बहुत बीमार हैं  आँखें 

नहीं रहतीं ठिकाने पर  

 

उदासी बेखबर होकर मेरे आँगन में आ पहुँची 

पुरानी ओढ़नी पर ये नए पैबंद जोड़ेगी|

 

कोई उद्दाम अभिलाषा  सभी प्रतिबन्ध  तोड़ेगी| 

सोमवार, 22 मार्च 2010

कुछ

कुछ
 
कुछ, जो मेरे मन में है
तुम जानते हो
कहने को कुछ बाकी भी है
आज साथी भी है
 
आ! कुछ कह लें
सुख - दुःख बाँट लें 
ताकि - जीवन के भावी दौर में 
दूर रहते हुए साथ चल सकें 
 
कुछ! शब्द अधूरे 
बातें कुछ जो ज़रूरी हैं 
कुछ भाव शायद -
अभिव्यक्त हो सकें
 
कुछ ! तुम ना दे सके
न मैं ले सकी
किसी और को देना है
एक मीठा ज़हर पीना है
 
तुमने कुछ मेरे लिए
मैंने तुम्हारे लिए
जीवन पुष्प का एक गुच्छा
खरीद लिया है
 
कुछ मेरे हाथों में है
कुछ तुम ले जाओ
इस तरह बाँट लें
मनों को छांट लें
 
कुछ ! जो मुझसे खो गया है
कुछ ! अब न मिलेगा
मेरा और तुम्हारा सम्बन्ध
अन्य ''कुछ'' से ज़्यादा ही है
 
 
 

शनिवार, 16 जनवरी 2010

नव बसंत

नव बसंत 
 
कल्पना के पर झुलाता 
दूर से नव गीत गाता 
गुनगुनाता फिर धरा में 
मुस्कुराता पास आया 
नव बसंत 
 
मूक प्रतिमाएं मुखर हो 
गा रहीं संगीत चंचल 
कौन रोके उन्मद  लहर सा  
जो लहरता लहर आया
मधु बसंत
 
हो गया है क्या ना जाने ?
लग रहा जैसे अंजाने 
आज मेरा दर्द कोई 
मस्तियों में बाँट आया 
है बसंत 
 
कुछ उष्णता सी मदभरी 
छाई हवाओं में 
मनचला मन बह रहा 
बासंती फिजाओं में 
शायद फिर गावों  में  
बरस आया
प्रिय बसंत
 
मिलन की शुभ चन्द्रिका में
है गुलालों की ललाई
हर डगर पर है सुहागिन
सी बसन्ती नमी छाई
नए छंदों में मचलता
भावनाओं का बसंत
नव बसंत
 
आज आशा की लताएं
स्वप्न सी स्वर्णिम हुई है
सुमन सौरभ सा झराता
कुछ पुरानी सुधि भुलाता
नई साधों को जगाता
उभर आया
मधु बसंत
 
कल्पना के पर झुलाता
दूर से नव गीत गाता
गुनगुनाता फिर धरा में
मुस्कुराता पास आया
नव बसंत