रविवार, 6 जून 2010

चुकाओ ग्रीष्म का कर्जा ...सजल जलधर से घिर आओ|

सरस घनश्याम आ जाओ!
 
तरणि  के ताप से व्याकुल
धरा की गोद जलती है
दिशाएँ तप रहीं लू से
हवाएं गर्म चलती हैं|
 
निराश्रित वृद्ध सी दोपहर
कुंवारी साध सी ढलती
बढ़ी आ रही गर्मी अब
सरासर सीढियां चढ़तीं|
 
ये कैसी उठ रही लपटें
असहनीय दर्द सी चुभती
उधर अम्बर सुलगता है
धरा पर आंधियां चलती|
 
तृषित कंठों को सरसाने
ह्रदय का भार उठवाने
चुकाओ ग्रीष्म का कर्जा
सजल जलधर से घिर आओ|
 
धरा के अंक में झूमो
दिशाओं में समा जाओ
बहाओ भाव की सरिता
मलिन रसहीन हृदयों पर|
 
मिले जीवन नया सबको
नवल संगीत अधरों पर
तुम्हारा मार्ग संजीवन
प्रतीक्षा में है आतुर मन|
 
गली, चौराहों, राहों पर
रुक्ष पीताभ-वृक्षों पर
उगलती आग के गोले-
घुटन बैठी हिडोले पर|
 
तुम्हारी दृष्टि के प्यासे, खड़े हैं
आज मुंह ताके|
मिटाने प्यास जन-मन की,
सरस घनश्याम आ जाओ|
 
घुमड़ आकाश में स्वच्छंद,
धरा की गोद भर जाओ
निलय के अंक में झूमो
दिशाओं में समा जाओ|
 
 

7 टिप्‍पणियां:

  1. आईये जानें .... मन क्या है!

    आचार्य जी

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  2. man vrindavan dekhkar bahut khushi hui. braj kshetra ka niwasi hone ke karan jab krishna ki bansuri kahin bhi sunai padti hai. udhar pahuch jata hun. man vrindavan bhi isi liye pahuch gaya. rachna ke liye badhai.

    Dr maharaj singh parihar
    www.vichar-bigul.blogspot.com

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