सरस घनश्याम आ जाओ!
तरणि के ताप से व्याकुल
धरा की गोद जलती है
दिशाएँ तप रहीं लू से
हवाएं गर्म चलती हैं|
निराश्रित वृद्ध सी दोपहर
कुंवारी साध सी ढलती
बढ़ी आ रही गर्मी अब
सरासर सीढियां चढ़तीं|
ये कैसी उठ रही लपटें
असहनीय दर्द सी चुभती
उधर अम्बर सुलगता है
धरा पर आंधियां चलती|
तृषित कंठों को सरसाने
ह्रदय का भार उठवाने
चुकाओ ग्रीष्म का कर्जा
सजल जलधर से घिर आओ|
धरा के अंक में झूमो
दिशाओं में समा जाओ
बहाओ भाव की सरिता
मलिन रसहीन हृदयों पर|
मिले जीवन नया सबको
नवल संगीत अधरों पर
तुम्हारा मार्ग संजीवन
प्रतीक्षा में है आतुर मन|
गली, चौराहों, राहों पर
रुक्ष पीताभ-वृक्षों पर
उगलती आग के गोले-
घुटन बैठी हिडोले पर|
तुम्हारी दृष्टि के प्यासे, खड़े हैं
आज मुंह ताके|
मिटाने प्यास जन-मन की,
सरस घनश्याम आ जाओ|
घुमड़ आकाश में स्वच्छंद,
धरा की गोद भर जाओ
निलय के अंक में झूमो
दिशाओं में समा जाओ|