सोमवार, 22 जून 2009

याद बहुत आते हैं मुझको

वो सपनीले दिन  

 

याद बहुत आते हैं मुझको  

खट्टी मीठी बातों वाले

अमियों वाले दिन

 

कैसी धूप कहाँ का जाड़ा

सर पर लू की चादर ओढे

सखी सहेली के घर जाना

बात-बात पर हँसने वाले

टीस जगा जाते हैं अक्सर

बचपन वाले दिन

 

गली मुहल्ला एक बनाते

बारी से सबके घर जाते

उनकी रसोई अपनी होती

रोज़ ही देहरी पूजा होती

अपनापे का स्वाद चखाते

बड़े मधुर संबंधों वाले

याद बहुत आते हैं मुझको

वो सपनीले दिन

 

अब कैसी नीरस दुनिया है

सुविधाओं का जाल बिछा है  

हर कोई अपने में गम है

किसको फुर्सत है जो सोचे

अपने और पराये घर से

दूर पास से आने वाले

खुशियों के संबोधन वाले

गीतों वाले दिन

 

बारिश में भीगे अनुभव से

बूँदों की रिमझिम में बसते

कविताओं की पायल पहने  

याद बहुत आते हैं मुझको  

मेहमानों से दिन

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