शुक्रवार, 26 जून 2009

अब बरस भी जाओ बादल ....

सरस घनश्याम जाओ  

 

तरणी के ताप से व्याकुल

दिशाएं तप रहीं लू से

हवाएं गर्म चलती हैं

 

निराश्रित वृद्ध सी दोपहर

कुँवारी साध सी ढलती

बढ़ी आती है गर्मी अब

सरासर सीढियां चढ़तीं

 

ये कैसी उठ रही लपटें

असहनीय दर्द सी चुभती

उधर अम्बर सुलगता है

धरा पर आंधियाँ चलतीं

 

तृषित कंठों को सरसाने,

हृदय का भार उठवाने

चुकाओ ग्रीष्म का कर्जा

सजल जलधार से घिर आओ   

धरा के   अंक में झूमो

दिशाओं में समां जाओ

 

बहाओ भाव की सरिता

मलिन रसहीन हृदयों पर  

मिले जीवन नया सबको

नवल संगीत अधरों पर

तुम्हारा मार्ग संजीवन

प्रतीक्षा में है आतुर मन

 

गली चौराहों,राहों पर

रूक्ष पीताभ-वृक्षों पर

उगलती आग के गोले

घुटन बैठी हिंडोले पर

 

तुम्हारी दृष्टि के प्यासे खड़े हैं  

आज मुँह ताके

 

मिटाने  प्यास जन-मन की            

सरस घनश्याम जाओ

घुमड़ आकाश में स्वच्छंद

धरा की गोद भर जाओ

निलय के अंक में झूमो

दिशाओं में समा जाओ
 

5 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़ी आती है गर्मी अब
    सरासर सीढियां चढ़तीं
    bahut khoob

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  2. श्‍याम के इन्‍द्रधनुष का एक रंग गर्मी वाला भी है। सदा सुहावना रहेगा तो सर्जनात्‍मकता कैसे पनपेगी। इसलिए रूप दोनों ही चाहिए बल्कि कहें यदि हम कि सातों चाहिए तो गलत न होगा।

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  3. waah deepaji waah !
    bahut hi anoothi kavita !

    pyaari kavita !

    तृषित कंठों को सरसाने,

    हृदय का भार उठवाने

    चुकाओ ग्रीष्म का कर्जा

    सजल जलधार से घिर आओ

    धरा के अंक में झूमो

    दिशाओं में समां जाओ
    ____________________BADHAAI !

    जवाब देंहटाएं
  4. बहाओ भाव की सरिता

    मलिन रसहीन हृदयों पर

    मिले जीवन नया सबको

    नवल संगीत अधरों पर

    तुम्हारा मार्ग संजीवन

    प्रतीक्षा में है आतुर मन

    bahut hi sundar saras ........uchchakoti ki kawita.......badhiya

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